Monday, February 21, 2011

चाँद


कनकलता टहनी के नीचे

चाँद निकल के आया रे

मद्धम मद्धम अंखिया भिचे

पलकों से शरमाया रे

मेघा जल के लाल हुई

सोना सा मौसम आया रे

चार नैन दो नैन हुए

दो फलक आलिंगन हुए

चहु ओर चांदनी छाया रे

कनकलता टहनी के निचे

चाँद निकल के आया रे

सिसक सिसक के हवा चले

शबनम पत्तो पे अठखेल करे

मन मयूरी मोरा झूमे

सोना सा मौसम आया रे

वो आनेवाला मिलने मुझसे

सन्देशा हमने पाया रे

मन मतवाला झुमे ऐसे

सोना सा मौसम आया रे

कनकलता टहनी के नीचे

चाँद निकल के आया रे

कुहु कुहु पपीहा बोले

मद्धम मद्धम नदी बहे

अंखियो के दो फलको से

मन बदरा घनघोर करे

हिरनी जैसे मनवा डोले

मदहोश आलिंगन लाया रे

कनक लता टहनी के निचे

चाँद निकल के आया रे

वो आनेवाला मिलने मुझसे

संदेह हमने पाया रे

कनक लता टहनी के निचे

चाँद निकल के आया रे

Saturday, October 30, 2010

मातम

शंझा मातम मना रहा हैं

चिंगारी बुझने को हैं

राख टटोलते भरवे आज भी

रक्त सैलाब जगाने को हैं

रामलला के नाम पे

कितनो को कुर्बान किये

अपने निज स्वार्थ के खातिर

रामलला को बदनाम किये

राम तो दिल में बसते हैं

मंदिर में क्यों बैठाना

इस बयर्थ झगडे को ले के

रक्त मानव का क्यों बहाना

ना कोई हिन्दू ना कोई मुस्लिम

हर जो मरता हैं इंसान

हर झगडे में बेघर होता

मातम लाता हैं इंसान

एक तरफ देख गम का साया

खुशी मनाता हैं इंसान

कुछ हैवानो के करतब से

आज फिर शरमाया हैं इंसान

आज फिर शरमाया हैं इंसान

Thursday, August 5, 2010

कुछ बिखरे शब्द


खून बसी एक जज्ब को दिल से आवाज देता हुँ
आरी तिरछी लकीरों को एक नया अंदाज देता हुँ
मेरी कलम तो यु ही बहक जाती हैं
इस से गीतों का एक नया अल्फाज देता हुँ

लोग मेरे अरमानो को नसीहत समझ लेते हैं
मेरे बेसबर ख्यालो को फुरसत समझ लेते हैं
और अगर दो लब्ज मुस्करा बोलु
तो मेरे इस बेखयाली को मुहब्बत समझ लेते हैं

मुहब्बत चीज क्या हैं
तुम इन नाजनिनो से पूछो
कल तलक नजरे झुकती थी
आज नजरे मिलाती हैं
कल तलक सम्म-- जलती थी
आजकल महफिले सजाती हैं

सब नजरो का धोखा हैं
बस एक पाक जिन्दगी चाहिए
किसी के संग जोड़ो मुझको
उसको बेहया होने की
शर्मिंदगी चाहिए
बस एक पाक जिन्दगी चाहिए

रंग-गलियों से जब हम गुजरते हैं
तो हर खडकी से तस्वीर दिखती हैं
मन तो करता हैं उन आहटो को सुने
लेकिन हमारे पैरो में
उनके प्रेम की ज़ंजीर दिखती हैं
कब तलक वो मुझे ऐसे तडपायेंगे
मेरे नजरो से फिसलते जायेंगे
एक दिन जब उनको अहसास होगा
शायद खुद को वो मेरे कब्र पे पायेंगे

हमने उनको देखा इस कदर
चर्चा सरेआम हो गई
और एक फूल जो दे दिया
वो बदनाम हो गई

अपने लब्जो की हम कहानी कहते हैं
खुद की हम जिंदगानी कहते हैं
गिरते हर रोज नए कंधे की तलाश में
इसको भी उनकी हम मेहरबानी कहते हैं
उनके सकशियत का नशा इतना गहरा हैं
किनारे से नक़ल जाओ नहीं तो डूब के मरना हैं

Monday, August 2, 2010

संकल्प

ले आओ एक कच्ची लकड़ी
चल पत्थर निशां बनाते हैं
उठ जाग मन विश्वास भर
चछु से दरीया बहाते हैं

मन नईया कर्तब्यो से बांधू

हिम्मत का पतवार चलाते हैं

सागर के सीने पे डोलू

एक नया तस्वीर बनाते हैं
ले आओ एक कच्ची लकड़ी
चल पत्थर निशां बनाते हैं

देखो अम्बर नीचे झुक सा गया

नदियों का बहना रुक सा गया

मन में दृढ संकल्प लिया तो

सूरज का चलना रुक सा गया

ले आओ एक कच्ची लकड़ी
चल पत्थर निशां बनाते हैं

Sunday, August 1, 2010

सावन गीत


काली बदरी तो आई हरजाई

पिया का संदेशा न लाई

मेरे अंगना में..

वो मेरे अंगना में आ के इतराई

पिया का संदेशा न लाई

कई सावन ने ली आंगराई

पिया का संदेशा न लाई

भोर दोपहर वो टूक टूक ताके

हर बटोही से पूछ पूछ शरमाई

कुकुहरे ने भी कुंक लगाई

पर पिया का संदेशा न लाई

काली बदरी तो आई हरजाई

पर पिया का संदेशा न लाई

Friday, May 7, 2010

"चाह "


उड़ती पतंगों को देखा
यु ही उड़ने की चाह
बहती नदियों को देखा
यु ही बहने की चाह
खाली तल्लैयो को देखा
नीर बन भर जाने की चाह
उचे पर्वतों को देखा
गगन चुमने की चाह
काली घटाओ को देखा
निर्झर बरसने की चाह
मरू में पगडंडीयो को देखा
एक मार्गद्रिष्टि की चाह
भुख से बिलबिलाते बच्चे को देखा
एक निवाला बनजाने की चाह
लड़खड़ाते आशिक को देखा
एक मधुप्याला बन जाने की चाह
ऐसे हजारो आशिकों के लिए
एक मधुशाला बनवाने की चाह
एक मधुशाला बनवाने की चाह

मदिरालय डगर


हम मदिरालय निशदिन जाते थे

हम जाम से जाम टकराते थे

आंशुओ के निशब्द प्रवाह को

हम मदिरा संग पी जाते थे

एक दिन मदिरालय के सुनी डगर पे

वो मिली अचानक मुग्ध हवा सी

थोडी सरमायी थोडी लहरायी

दिल को कुछ अहसास हुआ

आँखों में जो देखा उसके

नशे मदिरा का आभास हुआ

पास बुलाया उसने मुझको

न जाने क्या बात हुई

वो आँखों से छलकाती गई

हम होठो से पीते ही गए

हम जाम से जाम टकराते रहे

हर जाम पे होश खोते ही गए

हम भूल गए मदिरालय को

पर नही भूले मदिरालय जाना

वो रहती थी उस सुनी डगर पे

जिसपे था मदिरालय जाना

मदिरालय में वो आंनद कहा

जो मिला मुझे मदिरालय डगर पे

मदिरालय एक बंद कुँआ हैं

मदिरालय डगर एक बहती धारा

हम मदिरालय निशदिन जाते हैं

पर बीच डगर रुक जाते हैं

अब प्याले की क्या फ़िक्र हमें

वो अँखियों से छलकाते हैं

हम होठो से पी जाते हैं

हम मदिरालय निशदिन जाते हैं

पर बीच डगर रुक जाते हैं



नशा उन आँखों का



1.
तेरी आंखें नशे का पैमाना हैं
जिस्मे डूबा ये सारा ज़माना हैं
कोइ मुझे इन आंखों का रास्ता बता दो
आज मुझे भी उन्मे डूब जाना हैं

जाने क्या बात है दिल मे
जो ज़ुबा पर नही पाती
जज़्बात जो हैं मेरे दिल में
उन्हे लफ़्ज़ो की राह मिल नहि पाती

ये सच है कभी मैं भी ज़िन्दा था
ज़िन्दा मैं आज भी हूं पर मुझ्मे जान नहि
जीता हूं,सांस लेता हूं आज भी
पर तुम बिन मेरी कोइ पह्चान नही

एक आरमान है मेरे दिल में
जिसे में अपने दिल में दबाये बैठा हूं
जुदा हुए ज़माने बीत गयें
तुम्हरी याद को आज भी सीने से लगाये बैठा हूं

2.
तेरे आँखों के मेहनताने मे
आज फिर सम्मा जला पैमाने में
कितने आशिक हुए अनजाने में
तेरे आँखों के मेहनताने में

देखो सड़के भी डूबी हैं नशे में
कही लडखडाते पैर
कही गिरे हैं जान
ये सब छलके हैं मयखाने से
तेरे आँखों के मेहनताने में
आज फिर सम्मा जला पैमाने में

कितने गर्दिशो के धुल बने
कितने सहिलो के फूल बने
ये कातिल नजरे शूल बने
दिल टूटते हैं यहाँ अनजाने में
फिर नया छलका जाम मयखाने में
तेरे ही आशिकाने में
आज फिर सम्मा जला पैमाने में


छलका जाम आँखों से

पैमाना बन गया

उन्होंने जो मुड के देखा

आशियाना बन गया

इन आँखों से वो पिला दे

गर एक बूंद शराब का

नाचूँगा सारी उम्र

मैं दीवाना बन गया

वो कातिल निगाहे मुझको

इस कदर चाहती हैं

मैं रास्ते का फूल

नजराना बन गया

देखो किस कदर लोग

हुए हैं दीवाने

आज उनके दर पे ही

मयखाना बन गया

छलका जाम आँखों से

पैमाना बन गया

छलकते होठो से छू के

होठो को उन्होंने प्याला बना डाला

पास आई कुछ ऐसे वो

जिन्दगी को उन्होंने मधुशाला बना डाला

गर्म सांसो की छुअन हैं ऐसी

हर आहट की धरकन हैं ऐसी

कब तलक रोके हम भी

थिरकते बाहों को उन्होंने माला बना डाला

आँखों में मदभरी हया हैं छाई

जाम प्याले से छलक हैं आई

जाते जाते उनकी आँख भर आई

फ़िर से मेरे जिन्दगी को हाला बना डाला





Wednesday, March 17, 2010

बैरी पिया


उसके मन की ब्याकुल ब्यथा

हर आहट पे चौकस होती

पीपल के छाव तले

फिर मृगनयनी बाट जोहती

परदेसी पिपीहा छोर गया

विरह की ज्वाला जोड़ गया

सुर्यतपन अब सहनिए लगे

अंतःतपन पीड़ा के आगे

मेघदूत का राह देखती

कोई संदेशा लायेगा

बैरी पिया के आहट का

एक छोटी सी धुल दे जायेगा

मेघ दूत आये सिहरे से

मोटी मोटी बुँदे ले आये

सुर्यतपन कमजोर हुआ

पर अन्तः तपन को रोक न पाए

बारिश में भीगी मृगनयनी

अंदर की ज्वाला फिर भभकी

ज्वाला के चितचोर प्रवाह में

जलती रही वो जलती रही

बैरी पिया के राह जोहती

जलती रही वो जलती रही

Thursday, November 26, 2009

नारी तुम सम्मान की मूरत


नारी एक सम्मान की मुरत
पंक्ति को आलोकित देखा मैंने
सम्मान तो बाजार में बिकती
और मूरत घर पे रखा मैंने
नारी तेरा जीवन आमूल्य हैं
पंक्ति को आलोकित देखा मैंने
हर चौराहे पे मूल्य लगाये
फ़िर भी जीवन उसमे देखा मैंने
नारी अब आश्रित और कमजोर नही
पंक्ति को आलोकित देखा मैंने
हर दिन तलाशती नए आश्रय को
जीरो फिगर के चाह में उसको
और भी कमजोर देखा मैंने
आज मुझको शर्म हैं आता
नारी का जब ये रंग दिख जाता
माँ के रूप में सम्मानित थी नारी
बहन के रूप में प्यारी थी नारी
पत्नी के रूप में संगिनी थी नारी
आज एक अलग रूप हैं देखा
मनचलों की रंगीनी हैं नारी
नारी हैं तू सम्मान की मूरत
ना बनना किसी की ज़रूरत
न बनना किसी की ज़रूरत

Monday, October 5, 2009

नारी रंग


तुलिका लिया सौ रंग लिए
सोचा कुछ चित्रांकन करू
पुरुषों के इस आदम्य समाज में
नारी का मुल्यांकन करू

सोचा कहा से शुरु करू
जब घर वो लक्ष्मी बन आती हैं
कही रौनक कही उदासी
कही तो मातम ही छा जाती हैं
बाबुल के आंगन में वो
एक कली सी खिल जाती हैं
घर मर्यादा का बोझ लिए
समानता की होड़ लिए
गिरती हैं फिसलती हैं
मन में कुछ संकल्प लिए
पर्वत सिखा चढ़ जाती हैं

तभी घरांगन के दहलीज पे
एक बुलावा आता हैं
काफी मोलतोल हैं होती
फ़िर कही बात बन जाती हैं
बीते जीवन को भूल
नई रंग चढ़ जाती हैं
घर आँगन सब बदला
पहले बेटी अब पत्नी
के रूप में सजती हैं
घर आँगन को संसार समझ
एक नए रंग में रंगती हैं

ये रंग भी फीका हुआ तो
माँ का रंग चढ़ जाता हैं
उस छोटे से घर आँगन में
दादी वो बन जाती हैं
अमृतुल्या वो जीवन को छोर
मृत्य सैया पे सज जाती हैं
मर्यादा का बोझ लिए
जीते जी मर जाती हैं

कौन से रंग में रंगु नारी को
मैं कुछ समझ नही पता हु
पुरुषों के आदम्य समाज में
मैं नारी को शीश झुकता हु
नारी को शीश झुकता हु